जीनगर समाज का इतिहास
जीनगर समाज का इतिहास
Last Updated 08-Sep-2018
जीनगर जाति का इतिहास एक विशाल एवम वैभवशाली जाति का रहा है। जीनगर जाति मुलत: क्षत्रिय जाति ही थी मगर कालान्तर मे देश काल व परिस्थति वश उन्हे विभिन्न शिल्प कार्य, वाणिज्य एवम कारिगारी के धन्धो को अपनाना पडा। जीनगर क्षत्रिय से कब व कैसे जीनगर हो गये ये एक खोज परक विषय था। समाज इस विषय पर काफ़ी खोज करता रहा मगर इस कार्य को सर-अन्जाम दिया डाँ राधेश्यामजी ने जिन्होने बडी मेहनत और अथक प्रयास कर इतिहास व राजा महाराजाओ के गजट व विभीन्न वन्शावलि व लेखो द्वारा यह सिद्ध किया कि जीनगर जाति वास्तव मे एक क्षत्रिय जाति है। डाँ राधेश्यामजी ने अपनी समस्त खोज व जानकारी को एक पुस्तक रुप मे एक्त्रित किया तथा उसे "ज़ीनगर क्षत्रिय इतिहास" नाम दिया। इस ग्रन्थ का 15 मई 1946 बुधवार को मन्दसौर मे श्रिमान धानोमल राठोड हैदराबाद वालो की अध्यक्श्ता मे अखिल भारतिय जीनगर क्षत्रिय महासभा द्वारा विमोचन किया गया।
इस पुस्तक मे जीनगर क्षत्रियो के बारे मे बहुत ही विस्तरित जानकारी दी गयी है। उन्के अनुसार भागवान परशुराम ने धरति से क्षत्रियो का समूल नाश करने की प्रतिग्या की तथा धरती से समस्त क्षत्रियो का विनाश करने लगे। जब परशुरामजी ने "नगर-स्थान" के राज वन्शियो का सर्व नाश कर दिया तो वहा से केवल रतन सेन महाराज ही बच कर दधीच रिशि के आश्रमकेगी मे गुप्त रुप से पहुँच गये। मगर वहा भी उन्हे मार डाला गया। तब रतन सेन के बडे पुत्र ज़य सेन जो बच कर भाग गये थे, के द्वारा पुन: "नागर-स्थान" का राज्य स्थापित करने से इस वन्श का नाम जयनगर क्षत्रिय कहलाया जो कि कालान्तर मे जीनगर क्षत्रिय हो गया जो आज तक प्रचलित है।
अतः यह स्वमेव सिध्द हो जाता है कि जीनगर जाति के लोग उन्ही सुर्यवन्शी "नगर-स्थान" के राज्य के ज्येष्ठ पुत्र जयसेन के वन्शज है। जयसेन एक बहुत ही नेक दिल, दिलेर, बहादुर व न्याय प्रिय कुशल शासक थे। इनकी यश व कीर्ति सर्वत्र फ़ैल चूकि थी जिससे भारतवर्ष के पडोसी मुल्को - अरबो, आफ़गनो, तुर्को तथा मन्गोलो को लल्चाया तथा उन्होने "नगर-स्थान" पर फ़ोजी हमले करने शुरु कर दिये। बार बार हमले से अर्थव्यवस्था टूट्ने लगी तथा एक बार मलेच्चो ने नौ मास तक "नगर-स्थान" को घेरे रखा एवम युद्ध चलता रहा। जय नगर के क्षत्रियो ने ड्ट्कर मुक़ाबला किया और अन्त मे लाखो सैनिक वीर-गति को प्राप्त हुए तथा सभी बडे बडे योधा युध मे मारे गये, जिससे इस वन्श के बचे हुए सभी लोगो के पाव उखड गये और वे वहा से जान बचा कर भाग निकले।
विस्थापितो की तरह भटकते हुए राजपुताना (राजस्थान) की और प्रस्थान कर गये तथा राजपुताना को अपना सुरक्षित स्थान बनाया एवम राजपुताना के विभिन्न नगरो मे बस गये जिनमे मुख्यतः मारवार (जोधपुर), मेवाड (उदयपुर), आमेर, नागोर, अजमेर, जयपुर, सिरोही एवम जालोर मुख्य है।
यही से जीनगर जाति के लोग देश के विभिन्न शहरो मे जाकर बस गये। राजपुताना मे बसने के बाद सबसे बडी समस्या आजिविका की थी, अतः क्षत्रिय गुण धर्म होने से राजघराने के विभिन्न कार्य जेसे तलवार बनाना, म्यान बनाना, घोडो की जीन बनाना, राजसी कपडो पर छ्पाई आदि कार्य प्रारम्भ कर दिया।
इस प्रकार क्षत्रिय सनरक्षण मे इनका क्षत्रिय धर्म भी नष्ट नही हुआ तथा आजिवीका भी चलती रही, तथा ये लोग राजघरानो के सम्पर्क मे ही रहे और ये जीनगर क्षत्रिय ही कहलाये। इनके विभीन्न कार्य अनुसार इनकी नौ न्याति कहलायी जो निम्नानुसार है:(अ) ज़ीनगर (ब) पनीगर (स) सिफलीगर (द) म्यानगर (ए) धइग़र (फ़) छिपलीगर (ग) नेत्रगर (ह) ढालगर (इ) चित्रकार |समाज मे पन्च पन्चायात तथा अन्य अवसरो पर सभी नौ न्यात को बुलाया जाता था तथा आपस मे शादी ब्याह व सम्बन्ध होते थे।
ज़ीनगर जाति क्षत्रिय कुल (वन्श) से ही है, इसका उल्लेख एक प्राचीन ग्रन्थ जो सम्व्त 1860-1900 विक्रम मे जोधपुर नरेश श्रिमान महाराजा मानसिन्हजी के समय मे राजकवि कविराज श्री बाकीदासजी चारण का लीखा हुआ "एतिहासिक बाते" से होत है। इस ग्रन्थ की हस्त लिखित प्रति जोधपुर राज्य के मह्कमे मे सुरक्षित है। उक्त ग्रन्थ मे प्रष्ट सन्ख्या 2466 मे लीखा है कि "ज़ीनगर जाति की खास उत्पति क्षत्रिय कुल से ही है। परन्तु ये लोग भागवान परशुरामजी के डर से दूसरी जाति मे गिनाने लगे, फिर जुता बनाने से जीनगर कहलाये। इनके गोत्त्रा तथा प्राचिन क्षत्रियो के गोत्र एक ही है। इतना ही नही, मारवाड राज्य के जोधपुर मे करीब शताब्दि पूर्व बने मकानो के सरकारी पट्टो मे जीनगर राजपुत नाम मिलता है। इससे ये सिध्ध होता है कि जीनगर जाति क्षत्रिय कुल से ही है|" जैसा कि उपर वर्नित है जीनगर जाति के लोग शिल्पकारी व कारिगरी वाणिज्य का कार्य करके ही अपना जीवन यापन कारते थे जो कि राजा महाराजाओ के आश्रित काम पर ही निर्भर था। मगर अन्ग्रेजो के भारत मे आ जाने से उनके शासन काल मे छोटे छोटे द्वन्द युद्ध बन्द हो चले थे, ऐसे मे सेना के साजो सामान, घोडो की जीन, तालवार की म्यान आदि कार्य कम हो जाने से जीनगर जाति के लोग अन्य धन्धो की तालाश करने लगे।
कहा जाता है कि विक्रम सम्वत 1763-1781 से पहले तक जूते बनाने का कार्य मुसलमान किया करते थे तथा वे ही जूते बनाने वाले कहलाते थे। मगर जोधपुर महाराज श्री अजीत सिन्ह्जी किसी बात से मुसालमान जूते बनाने वालो से नाराज हो गये तथा हुकम दिया कि आज से वे मुसालमानो के हाथ का जूता नही पहनेगे, अतः किसी हिन्दु से जूता बना जाये| तब महराजा के आग्या अनुसार श्री देवी सिन्ह म्यानगर ने प्रथम जूता बनाकार महाराज श्री अजीत सिन्ह्जी को पहनाया, इससे महाराजा बडे प्रसन्न हुए तथा देवी सिन्ह म्यानगर को ईनाम व इज्जत बक्शी। इससे प्रोतसाहित होकर अन्य जीनगर बन्धुओ ने भी जूता बनाना शुरू कर दिया। इस प्रकार हम जीनगर क्षत्रिय से जूते बनाने वाले बन गये। आज जीनगर समाज के लोग लगभग पूरे भारत मे बसे हूए है। जिनमे मुख्यतः राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, पन्जाब, गुजरात एवम महाराष्ट्र मुख्य है।
ज़ीनगर समाज के लोगो का आज भी पहनावा व रिति रिवाज क्षेत्रियोचित है। जीनगर समाज के शादी ब्याव व अन्य धार्मिक कार्यो मे श्रिमालि ब्रहामन पूजा पाठ कारने आते है। वर्तमान मे हमारे जीनगर समाज की दिनो दिन उन्न्ति हो रही है। शिक्षा का स्तर बढ रहा है, आज देश की उच्च सरकारी सेवाओ मे तथा अन्य तकनिकी क्षेत्रो मे हमारी युवा पिढी अग्रनी है। समाज मे शिक्षा के प्रति नइ सोच पैदा हो रही है। स्त्रि शिक्षा को भी अधिक बढावा दिया जा रहा है, जिससे समाज का भविष्य अति उज्जवल नजर आ रहा है।
हम सभी का दायित्व है कि जीनगर समाज को हर क्षेत्र मे नइ पह्चान व उन्चाइया दे
सोजन्य- जीनगरज्योति
लेखक एवम सम्पादन - श्री बाबू लाल गोयल, प्रेसिडेन्ट - आबुरोड जीनगर समाज